Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर

Kedarkantha Trek, Part 2: नमस्कार! यह ट्रैवल ब्लॉग भारत की सबसे फेमस विंटर ट्रेक केदारकांठा के बारे में है. 5 सीरीज के इस ब्लॉग का ये दूसरा पार्ट है जिसमें हम आपको बता रहे हैं कि कैसे बिना इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क के लाइफ कैसी होती है खासतौर से बर्फबारी के समय जहां गाड़ियां कब फंस जाएं किसी को पता नहीं. पहला पार्ट यहां पढ़ें: – (केदारकांठा ट्रेक पार्ट-1: अगर जानवर न बोलते तो आज केदारनाथ मंदिर यहीं होता, जानिए केदारकांठा के बारे में सब कुछ)
……7 जनवरी को दिल्ली के कश्मीरी गेट आईएसबीटी से रात में करीब 11 बजे देहरादून के लिए एसी वॉल्वो बस पकड़ी. पता नहीं बस वालों को क्या हो जाता है कि वे सर्दियों में हीटर इतना तेज रखते हैं कि सांस लेना मुश्किल हो जाता है और गर्मियों में कूलिंग इतना ज्यादा रखते हैं कि चादर का सहारा लेना पड़ जाता है. खैर.. बस ड्राइवर अच्छा था तो कहने पर हीटर कम कर दिया. एसी वॉल्वो का किराया 780 रुपये था. उसने हमें सुबह 5 बजे देहरादून पहुंचा दिया.
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
देहरादून आईएसबीटी से हमें टेंपो ट्रैवलर सुबह 7 बजे पिक करने वाला था लेकिन हम दो घंटे पहले पहुंच गए. बारिश हो रही थी. लगभग 5°C टेम्प्रेचर था. बस से निकलने के आधे घंटे बाद थोड़ी सर्दी लगने लगी क्योंकि हैवी जैकेट उतार दी थी. खैर.. बारिश में भीगी बसों को आते-जाते देख किसी तरह दो घंटे बीत गए. इंतजार करने के बाद ठीक 7 बजे टेंपो ट्रैवलर वाले का फोन आया और आईएसबीटी के सामने पुलिस चौकी के पास हमें बुलाया. टेंपो ट्रैवलर वाले भैया वहीं पहाड़ों के लोकल थे. शायद सांकरी के ही पास किसी गांव के थे.
टेंपो में बैठने के बाद करीब एक घंटे किसी और का उन्होंने इंतजार किया क्योंकि उन लोगों की बस शायद लेट हो गई थी. हम वहां से करीब 8 बजे चले. देहरादून थोड़ा क्राउडी हो गया है. ऊपरी पहाड़ी इलाकों के लोग ज्यादातर देहरादून का रुख करने लगे हैं. शायद इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह रोजगार, अच्छी शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा है! देहरादून पार ही करने वाले थे कि हमारे ड्राइवर भाईसाब ने एक जगह टेंपो रोका और एक लड़की को बिठाया. पहले तो मुझे लगा कि ये कोई स्कूली लड़की है जो शायद अगले कहीं स्कूल पर उतर जाएगी लेकिन बाद में पता चला कि वो लड़की ड्राइवर भाई साब की भांजी थी जो वहीं सांकरी के पास में अपने गांव जा रही थी.
देहरादून से आगे जैसे ही पहाड़ों में प्रवेश किया… मुझे कुछ अलग ही अहसास हो रहा था. देहरादून से मसूरी और केम्प्टी फॉल होते हुए हम गुजर रहे थे. टेंपो में साथी ट्रैवलर्स भी थे. हमारे ट्रेक लीडर भी थे जो देहरादून से हमारे साथ जा रहे थे. मुझे पहाड़ों की बारिश बड़ी शरारती लगती है. उन लंबे चीड़ के पेड़ों के बीच छिप-छिप कर ये बारिश खूब आंख मिचौली खेलती है. लेकिन किसे फर्क पड़ता है. हम तो बंद शीशे की गाड़ी में बैठे हैं. बारिश को ढूंढ़ना होगा तो ढूंढ़ लेगी.
रास्ते में ड्राइवर ने दो जगह बस रोकी. एक जगह ब्रेकफास्ट के लिए और एक जगह लंच करने के लिए. लंच हमने उत्तरकाशी के पुरोला में किया. दरअसल पुरोला उत्तराखंड के 70 विधानसभा क्षेत्रों में से एक है. पुरोला तक सभी मोबाइल इंटरनेट ठीक से आ रहा था. बारिश पूरे सफर में होती रही थी. पुरोला से लगभग दो किलोमीटर ऊपर बढ़े ही थे कि हमें कुछ ऐसा देखने को मिला जिस पर यकीन नहीं हो रहा था.
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
वो बारिश कब उस बर्फ में बदल गई पता ही नहीं चला. जो पेड़ और पहाड़ियां अभी थोड़ी देर पहले हरी-भरी दिख रहीं थीं वो अब सफेद हो चुकी थीं. ऐसा लग रहा था जैसे धरती के किसी ऐसे छोर पर आ गए हों जहां केवल सफेद रंग की खेती होती है और फसल बहुत उम्दा हुई हो. ये वो नजारा था जिसे देखने के लिए हर परेशानी को भुलाया जा सकता है. ये वो नजारा था जिस पर शायर गालिब से कंपटीशन करने लगे. हालांकि जहां ये नजारा हमें बेहद हसींन लग रहा था तो वहीं हमारे ड्राइवर भाई साब के माथे पर परेशानी साफ झलक रही थी. जब तक नेटवर्क रहा तब तक वे अपने आगे वालों से फोन कर हालात पूछते रहे कि ‘क्या गाड़ी आगे तक जा रही है?’
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
भारी स्नोफॉल के चलते पहली बार हमारी गाड़ी जर्मोला गांव के पास जाकर रुकी. दरअसल वहां से आगे गाड़ियां नहीं जा रहीं थी क्योंकि उससे आगे और भी कई गाड़ियां फसी हुई थीं और जेसीबी की मशीन बर्फ साफ करने में लगी थी. ड्राइवर भाई साब ने हम लोगों की मदद से किसी तरह गाड़ी पीछे करके साइड में लगाई. वैसे एक बात बताना चाहूंगा कि पहाड़ों पर जाओ तो उसे एंजॉय करने के लिए किसी खास पल का इंतजार न करो. बल्कि हर पल को एंजॉय करो. जब हमारी गाड़ी रुकी तो काफी तेज बर्फबारी हो रही थी. हालांकि इससे पहले भी मैं बर्फबारी का आनंद ले चुका हूं लेकिन पहाड़ों पर मेरे लिए हर पल खास और अलग होता है.
पहाड़ों पर हो रही मोतियों की बारिश को देखते हुए मेरे अंदर का फोटोग्राफर जाग उठा. मोबाइल कैमरे से, डीएसएलआर से.. हर तरह से मैं फोटो वीडियो ले रहा था. दरअसल हम इंस्टाग्राम जनरेशन के हैं. घास पत्तियों के फोटो और बच्चों के पोर्ट्रेट डाल-डाल थक चुकी इस जनरेशन के लिए स्नोफॉल को कैप्चर करना किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं है. जर्मोला में मेरा मोबाइल इंटरनेट, नेटवर्क सब ठप्प हो चुका था. न जियो आ रहा था और न वोडाफोन. अब ऐसे में मेरे अंदर का फोटोग्राफर अब अपने इंस्टाग्राम को कुछ चारा देना चाह रहा था लेकिन उसके पास कोई साधन नहीं था. तभी मैंने देखा कि गाड़ी के अंदर बैठे हमारे ट्रेक लीडर साब फोन पर नेटफ्लिक्स चला रहे हैं. मेरी आंखों में रौशनी आ गई. मैंने बोला- विशाल भैया हॉटस्पॉट मिलेगा?
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
भैया ने निराश नहीं किया. जैसे ही इंटरनेट मिला सबसे पहले बर्फबारी की इंस्टा स्टोरी… DSLR से फोन में सेंड किए गए फोटोज को हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर कर मन को तसल्ली दी. हालांकि ये समस्या की शुरुआत थी. क्योंकि तब तक जेसीबी रोड से बर्फ साफ कर चुकी थी और गाड़ी आगे बढ़ गई. जैसे ही गाड़ी दो किलोमीटर और आगे बढ़ी वैसे ही सभी का इंटरनेट जा चुका था. अब दिक्कत ये कि पता नहीं किसने क्या कमेंट किया होगा? किसने क्या जानकारी मांगी होगी? जिसको व्हाट्सऐप पर फोटो भेजे उसने क्या रिप्लाई किया होगा? इन तमाम सवालों के बीच गाड़ी एक बार फिर से रुक गई और इस बार भी लंबा इंतजार करना पड़ा. आगे ट्रक और बस खड़ी थीं.

बर्फबारी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. फिर किसी तरह रोड खुला तब तक रात हो चुकी थी और हम मंजिल से करीब 40 किलोमीटर पीछे थे. अंधेरी रात में गाड़ी की लाइट में बर्फबारी काफी खूबसूरत लग रही थी. शीशे के अंदर से उन ऊबड़ खाबड़ रास्तों में किसी तरह से फोन से वीडियो बनाने की कोशिश की. शीशे के अंदर से बाहर का नजारा देखने से ऐसा लग रहा था जैसे कि आसमान से चांदी के टुकड़े पिघल-पिघल कर नीचे जमीं पर गिर रहे हों. भयंकर बर्फ के ऊपर पहाड़ी इलाकों में गाड़ी चलाना बेहद खतरनाक होता है. चढ़ाई पर हमेशा खतरा रहता है कि गाड़ी कहीं फिसलकर पीछे खाई में न चली जाए.
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर

खैर, जैसे ही समतल इलाका आया तो हमारे ड्राईवर भाई साब को थोड़ा जोश आया और गाड़ी तेज स्पीड में भगाने लगे. लेकिन कहते हैं न कि ‘आसमान से गिरे खजूर में आ अटके!’ बड़े पत्थर पर गाड़ी चढ़ गई और पीछे का एक पहिया पंचर हो गया. अब उसे बदलने में कम से कम आघा घंटा लगा. हालांकि अब यहां से गाड़ी हर कदम आगे बढ़ने से इतरा रही थी. गाड़ी की बढ़ी हुई रेस की आवाज को सुनकर स्पीड का अंदाजा लगाना मुश्किल था क्योंकि ये काफी धीमी थी. तभी किसी तरह हम एक आयरन ब्रिज पर पहुंचे. ड्राइवर ने सबको बताया कि अब गाड़ी इससे आगे नहीं जा पाएगी. आज रात गाड़ी के अंदर ही सोना होगा. सुबह जब रोड साफ होगा तो ही आगे जा पाएंगे. उस समय रात के करीब 9 बज रहे थे. हम सभी गाड़ी में सोने की जद्दोजहद कर रहे थे. किसी को नींद नहीं आ रही थी.
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर
Kedarkantha Trek: बिना नेटवर्क और इंटरनेट के कैसी होती है पहाड़ी जिंदगी? बर्फबारी के बीच देहरादून से सांकरी का अद्भुत सफर

हालांकि कुछ खर्राटों की आवाजें बता रही थीं कि कोई तो है जो सुकून में है! उस समय हम ब्रिज पर खड़ी गाड़ी के अंदर बैठे-बैठे किसी तरह ये सोच रहे थे कि भगवान कोई तो आ जाए जो ये रोड साफ कर दे और आज ही हम सांकरी पहुंच जाएं. बर्फबारी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. ड्राइवर और उनके साथ वाले स्टाफ के लोग कह रहे थे कि ‘अगर चलना है तो नाइट ट्रेक करके सांकरी अभी चलिए. यहां से करीब 18 किलोमीटर ऊपर है. नहीं तो सुबह जब रोड साफ हो जाए तब!’

कुछ घंटों बाद तभी दूर एक जोरदार लाइट दिखी. कुछ मिनट में वो लाइट हमारे करीब आ चुकी थी. गौर से देखा तो जेसीबी से बर्फ साफ की जा रही थी. रात के करीब 12 बज चुके थे. यकीन मानिए वो जेसीबी वाला किसी फरिश्ते से कम नहीं था. अगर देश में कहीं ईमानदारी, मानवता है तो वो पहाड़ों पर है. रात के 12 बजे अगर कोई जेसीबी वाला गांव साइड के रोड पर से बर्फ हटा रहा है तो यकीन मानिए वो किसी सरकारी हुक्म से नहीं बल्कि उस सोच से ऐसा कर रहा है ताकि उसके किसी गांव वाले या उसके यहां आने वाले किसी मेहमान को कोई परेशानी न हो.

वहां से ड्राइवर ने आधे घंटे बाद गाड़ी चलाई. लेकिन ये सफर आसान नहीं था. काफी डर लग रहा था क्योंकि गाड़ी फिसल रही थी. जैसे-तैसे गाड़ी 4 किलोमीटर और आगे बढ़ पाई फिर रुक गई. इस बार ड्राइवर भाई साब ने गाड़ी के पहियों में रस्सी बांधने का जुगाड़ भिड़ाया. शानदार जुगाड़ था. पहियों में रस्सी बांधने से गाड़ी लगभग एक किलोमीटर और आगे बढ़ी और रस्सियां कट गईं.

फिर से रस्सी बांधी और इस बार किसी तरह लगभग दो किलोमीटर तक गाड़ी आगे बढ़ी. लेकिन अब यहां से आगे जाना लगभग असंभव था. आगे किसी भी तरह की किसी भी गाड़ी की मूवमेंट हुई नहीं थी और रोड पर बर्फ करीब एक दो फीट था. ड्राइवर साब ने सारे प्रयत्न करके देख लिए. लेकिन कुछ काम नहीं आया. अब गाड़ी गैंचवान गांव के पास साइड में लगाई और हम लोगों ने शुरू किया अपना पैदल मार्च.

रात के करीब डेढ़ बजे हमने अपनी मंजिल बोले तो सांकरी के लिए पैदल मार्च शुरू किया. न चाहते हुए भी ये मेरी लाइफ की पहली विंटर ट्रेक थी. क्योंकि असली ट्रेक सुबह शुरू होनी है. गाड़ी से उतरे तो खूब सारे कपड़े पहनके ताकी ठंड न लगे. लेकिन मुश्किल से 500 मीटर आगे बढ़ पाए होंगे तभी शरीर से पसीना छूटने लगा. क्योंकि भयंकर बर्फ में चढ़ाई करनी थी. पैदल चलते-चलते सबसे ज्यादा दिक्कत पैर की उंगलियों को हो रही थी.


कहीं भी कोई ठंड नहीं लग रही थी. पीठ पर पूरा भरा हुआ बैग लदा था इसलिए चलने में दिक्कत हो रही थी लेकिन पैर की उंगलियां काफी दिक्कत कर रही थीं. मैंने अपने स्पोर्ट्स शूज पहने हुए थे. अब उस दो फीट बर्फ में स्पोर्ट्स शूज का क्या काम? दरअसल ये पूरी तरह से अनएक्सपेक्टेड था. हमें लगा कि ट्रेक तो अगले दिन से शुरू होगी तो ट्रेकिंग शूज तो सांकरी से किराए पर ले लेंगे. लेकिन ट्रेक हमें रात में ही करनी पड़ गई. अच्छी बात ये रही कि तब तक बर्फबारी रुक गई थी और चांद पूरी तरह से हमें टॉर्च दिखाने का काम कर रहा था. हालांकि बीच-बीच में पहाड़ियों के बीच वो हमसे लुका छिपी भी खेल रहा था लेकिन उतना तो चलता है.

करीब 8 से 9 किलोमीटर की वो थका देने वाली, तोड़ के रख देने वाली ‘विंटर ट्रेक’ के बाद हम सांकरी गांव पहुंच गए. लाइफ में पहली बार वर्कआउट करने की जरूरत महसूस हुई. सुबह के 4 बज रहे थे. शरीर से भाप उड़ रही थी. क्योंकि पसीने से भीग चुके थे. अब वो पसीना अंदर से ठंडा लग रहा था. जल्दी से रूम में गए. कोई लाइट नहीं थी क्योंकि भारी बर्फबारी से सब ठप्प पड़ा था. किसी टंकी में कोई पानी नहीं क्योंकि पाइप फ्रीज थे. लेकिन पहाड़ी भाइयों की जितनी तारीफ करो कम है. उन्होंने रात से 4 बजे हम सभी 12 से 15 लोगों के लिए दाल रोटी बनवाई. हम लोगों को काफी भूख लगी थी. याद रहे कि गांव में मोबाइल नेटवर्क नहीं है इसलिए उन्हें आने वाले मेहमानों की जानकारी खुद मेहमान ही आकर देते हैं. होटल वालों को पता था कि हम लोग रात में 8 या 9 बजे तक आ जाएंगे. लेकिन हम फंस गए और वो सो चुके थे क्योंकि कम्युनिकेशन का कोई साधन नहीं था. इस सबसे बावजूद उन्होंने रात के 4 बजे खाना तैयार कर दिया. खाना खाकर हम जिस करवट सोए …. सुबह उसी करवट उठे. सुबह जब उठे तो दिन के 12 बज रहे थे. धूप बर्फ से टकरा के रूम की विंडो में लगे शीशे से आंखों में लग रही थी.

View this post on Instagram


ऐसा लग रहा था जैसे उस रात किसी और प्लानेट पर थे. लेकिन अब हम पूरी तरह से इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क की जद से बाहर थे. हमें क्या खुद वहां के लोगों को नहीं पता कि बाकी की दुनिया में क्या हो रहा है! ये उनके लिए (पहाड़ी लोगों के लिए) आसान नहीं है. लेकिन वे सब मैनेज करते हैं. वे पास की पहाड़ियों पर एक दूसरे से संपर्क करने के लिए वॉकी-टॉकी का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें दुनिया की जानकारी बाहर से आए लोग ही देते हैं. या फिर जब वे वहां से करीब 20-25 किलोमीटर नीचे जाते हैं तब उन्हें मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट मिलता है…. अब अगले यानी तीसरे पार्ट में जानिए कि केदारकंठा भारत की सबसे फेमस विंटर ट्रेक क्यों है?

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *